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सरस्वती की पूजा का विधान तथा कवच…
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नारदजी ने कहा – भगवन्! आपके कृपा प्रसाद से यह अमृतमयी सम्पूर्ण कथा मुझे सुनने को मिली है। अब आप इन प्रकृति संज्ञक देवियों के पूजन का प्रसंग विस्तार के साथ बताने की कृपा कीजिये किस पुरुष ने । किन देवी की कैसे आराधना की है? मर्त्यलोक में किस प्रकार उनकी पूजा का प्रचार हुआ ? किस मन्त्र से किनकी पूजा तथा किस स्तोत्र से किनकी स्तुति की गयी है ? किन देवियों ने किनको कौन – कौनसे वर दिये हैं? मुझे देवियों के स्तोत्र, ध्यान, प्रभाव और पावन चरित्र के साथ-साथ उपर्युक्त सारी बातें बताने की कृपा कीजिये ।

भगवान् नारायण कहते हैं – नारद! गणेश जननी दुर्गा, राधा, लक्ष्मी, सरस्वती और सावित्री – ये पाँच देवियाँ सृष्टि की प्रकृति कही जाती हैं। इनकी पूजा और अद्भुत प्रभाव प्रसिद्ध है। अमृत की तुलना करने वाले इनके सुप्रसिद्ध चरित्र से सम्पूर्ण मंगल सुलभ हो जाते हैं। ब्रह्मन् ! प्रकृति के अंश और कलासंज्ञक जो देवियाँ हैं, उनके पुण्य चरित्र तुम्हें बताता हूँ, सावधान होकर सुनो। इन देवियों के नाम हैं काली, वसुन्धरा, गंगा, षष्ठी, मंगलचण्डिका, तुलसी, मनसा, निद्रा, स्वधा, स्वाहा और दक्षिणा । इनके संक्षिप्त मधुर और वैराग्योत्पादक चरित्र में भी पवित्र करने की पूर्ण शक्ति है। दुर्गा और राधा का चरित्र बहुत विस्तृत है। संक्षेप में उसे कहता हूँ—सुनो । मुनिवर ! सर्वप्रथम भगवान् श्रीकृष्ण ने उन सरस्वती की पूजा की है, जिनके प्रसाद से मूर्ख व्यक्ति पण्डित बन जाता है। इन कामस्वरूपिणी देवी ने श्रीकृष्ण को पाने की इच्छा प्रकट की थी। ये सरस्वती सबकी माता कही जाती हैं। सर्वज्ञानी भगवान् श्रीकृष्ण ने इनका अभिप्राय समझकर सत्य, हितकर तथा परिणाम में सुख देने वाले वचन कहे।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले- साध्वी! तुम नारायण के पास पधारो। वे मेरे ही अंश हैं।

उनकी चार भुजाएँ हैं। मेरे ही समान उन परम सुन्दर पुरुष में सभी सद्गुण वर्तमान हैं। वे सदा। तरुण रहते हैं। करोड़ों कामदेवों के समान उनकी सुन्दरता है। लीलामय दिव्य अलंकारों से अलंकृत वे सब कुछ करने में समर्थ हैं। मैं सबका स्वामी हूँ। सभी मेरा अनुशासन मानते हैं। किंतु राधा की इच्छा का प्रतिबन्धक मैं नहीं हो सकता। कारण, वे तेज, रूप और गुण सब में मेरे समान हैं। सबको प्राण अत्यन्त प्रिय हैं फिर मैं अपने प्राणों की अधिष्ठात्री देवी इन राधा का त्याग करने में कैसे समर्थ हो सकता हूँ? भद्रे ! तुम वैकुण्ठ पधारो। तुम्हारे लिये वहीं रहना हितकर होगा। सर्वसमर्थ विष्णु को अपना स्वामी बनाकर दीर्घकाल तक आनन्द का अनुभव करो। तेज, रूप और गुण में तुम्हारे ही समान उनकी एक पत्नी लक्ष्मी भी वहाँ हैं। लक्ष्मी में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मान और हिंसा – ये नाममात्र भी नहीं हैं। उनके साथ तुम्हारा समय सदा प्रेमपूर्वक सुख से व्यतीत होगा। विष्णु तुम दोनों का समानरूप से सम्मान करेंगे। सुन्दरी ! प्रत्येक ब्रह्माण्ड में माघ शुक्ल पंचमी के दिन विद्यारम्भ के शुभ अवसर पर बड़े गौरव के साथ तुम्हारी विशाल पूजा होगी। मेरे वर के प्रभाव से आज से लेकर प्रलयपर्यन्त प्रत्येक कल्प में मनुष्य, मनुगण, देवता, मोक्षकामी प्रसिद्ध मुनिगण, वसु, योगी, सिद्ध, नाग, गन्धर्व और राक्षस-सभी बड़ी भक्ति के साथ सोलह प्रकार के उपचारों के द्वारा तुम्हारी पूजा करेंगे। उन संयमशील जितेन्द्रिय पुरुषों के द्वारा कण्वशाखा में कही हुई विधि के अनुसार तुम्हारा ध्यान और पूजन होगा। घड़े अथवा पुस्तक में तुम्हें आवाहित करेंगे। तुम्हारे कवच को भोजपत्र पर लिखकर उसे सोने की डिब्बी में रख गन्ध एवं चन्दन आदि से सुपूजित करके लोग अपने गले में अथवा दाहिनी भुजा में धारण करेंगे। पूजा के पवित्र अवसर पर विद्वान् पुरुषों के द्वारा तुम्हारा सम्यक् प्रकार से स्तुति पाठ होगा।

इस प्रकार ध्यान करके विद्वान् पुरुष पूजन के समग्र पदार्थ मूलमन्त्र विधिवत्
सरस्वती को अर्पण कर दे, फिर कवच का पाठ करने के पश्चात् दण्ड की भाँति भूमिपर पड़कर देवी को साष्टांग प्रणाम करे। मुने! जो पुरुष भगवती सरस्वती को अपना इष्टदेवता मानते हैं, उनके लिये यह नित्यक्रिया है। ‘श्री ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा’ यह वैदिक अष्टाक्षर मूल मन्त्र परम श्रेष्ठ एवं सबके लिये उपयोगी है। अथवा जिनको जिसने जिस मन्त्र का उपदेश दिया है, उनके लिये वही मूल मन्त्र है। ‘सरस्वती’ इस शब्द के साथ चतुर्थी विभक्ति जोड़कर अन्त में स्वाहा शब्द लगा लेना चाहिये। लक्ष्मी और योगमाया की आराधना में भी इसी मन्त्र का प्रयोग किया जाता है। इस मन्त्र को कल्पवृक्ष कहते हैं। प्राचीन काल में कृपा के समुद्र भगवान् नारायण ने वाल्मीकि मुनि को इसी का उपदेश किया था। भारतवर्ष में गंगा के पावन तटपर यह कार्य सम्पन्न हुआ था। फिर, सूर्यग्रहण के अवसर पर पुष्कर – क्षेत्र में परशुरामजी ने शुक्र को इसका उपदेश किया था। मारीच ने चन्द्रग्रहण के समय प्रसन्न होकर बृहस्पति को बताया था। बदरी – आश्रम में परम प्रसन्न ब्रह्मा की कृपा से भृगु इसे जान सके थे। जरत्कारु मुनि क्षीरसागर के पास विराजमान थे। उन्होंने आस्तीक को यह मन्त्र पढ़ाया था । बुद्धिमान् ऋष्यशृंग ने मेरुपर्वत पर विभाण्डक मुनि से इसकी शिक्षा प्राप्त की थी। शिव ने आनन्द में आकर गोतम गोत्र में उत्पन्न कण्वमुनि को इसका उपदेश किया था। याज्ञवल्क्य कात्यायन ने सूर्य की दया से इसे पाया था। महाभाग शेष पाताल में बलि के सभा भवन पर विराजमान थे। वहीं उन्होंने पाणिनि, बुद्धिमान् भारद्वाज और शाकटायन को इसका अभ्यास कराया था। चार लाख जप करने पर मनुष्य के
लिये यह मन्त्र सिद्ध हो सकता है। इस मन्त्र के सिद्ध हो जाने पर अवश्य ही मनुष्य में बृहस्पति के समान योग्यता प्राप्त हो सकती है। विप्रेन्द्र ! सरस्वती का कवच विश्वपर विजय प्राप्त कराने वाला है। जगत्स्स्रष्टा ब्रह्मा ने गन्धमादन पर्वत पर भृगु के आग्रह से इसे उन्हें बताया था, वही मैं तुमसे कहता हूँ, सुनो।

इस प्रकार कहकर स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने भी उन सर्वपूजिता देवी सरस्वती की पूजा की। तत्पश्चात् ब्रह्मा, विष्णु, शिव, अनन्त, धर्म, मुनीश्वर, सनकगण, देवता, मुनि, राजा और मनुगण – ये सभी भगवती सरस्वती की उपासना करने लगे। तबसे ये सरस्वती सम्पूर्ण प्राणियों से सदा सुपूजित होने लगीं।

नारदजी बोले – वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ प्रभो! आप भगवती सरस्वती की पूजा का विधान, कवच, ध्यान, उपयुक्त नैवेद्य, फूल तथा चन्दन आदि का परिचय देने की कृपा कीजिये। इसे सुनने के लिये मेरे हृदय में बड़ा कौतूहल हो रहा है।

भगवान् नारायण कहते हैं-नारद! सुनो। कण्वशाखा में कही हुई पद्धति बतलाता हूँ। इसमें जगन्माता सरस्वती के पूजन की विधि वर्णित है। माघ शुक्ल पंचमी विद्यारम्भ की मुख्य तिथि है। उस दिन पूर्वाह्णकाल में ही प्रतिज्ञा करके संयमशील बन जाय। पवित्र रहे, स्नान और नित्यक्रिया के पश्चात् भक्तिपूर्वक कलशस्थापन करे। फिर अपनी शाखा में कही हुई विधि से अथवा तान्त्रिक विधि के अनुसार पहले गणेशपूजन करे। तत्पश्चात् इष्टदेवता सरस्वती का पूजन करना उचित है। फिर ध्यान करके देवी का आवाहन करे। तदनन्तर व्रती रहकर षोडशोपचार से भगवती की पूजा करे। सौम्य ! पूजा के लिये कुछ उपयोगी नैवेद्य वेद में कथित है। ताजा मक्खन, दही, दूध, धान का लावा, तिल के लड्डू, सफेद गन्ना, गुड़ में बना हुआ मधुर पक्वान्न, मिश्री, सफेद रंग की मिठाई, घी में बना हुआ नमकीन पदार्थ, बढ़िया सात्त्विक चिउड़ा, शास्त्रोक्त हविष्यान्न, जौ अथवा गेहूँ के आटे से घृत में तले हुए पदार्थ, पके हुए स्वच्छ केले का पिष्टक, उत्तम अन्न को घृत में पकाकर उससे बना हुआ अमृत के समान मधुर मिष्टान्न, नारियल, उसका पानी, कसेरू, मूली, अदरख, पका हुआ केला, बढ़िया बेल, बेर का फल, देश और काल के अनुसार उपलब्ध ऋतुफल तथा अन्य भी पवित्र स्वच्छ वर्ण के फल- ये सब नैवेद्य के सामान हैं।

मुने! सुगन्धित सफेद पुष्प और सफेद स्वच्छ चन्दन देवी सरस्वती को अर्पण करना चाहिये। नवीन श्वेत वस्त्र और सुन्दर शंख की विशेष आवश्यकता है। श्वेत पुष्पों की माला और भूषण भगवती को चढ़ावे। महाभाग मुने! भगवती सरस्वती का श्रेष्ठ ध्यान परम सुखदायी है तथा भ्रम का उच्छेद करने वाला है। वह वेदोक्त ध्यान यह है

‘सरस्वती का श्रीविग्रह शुक्लवर्ण है। ये परमसुन्दरी देवी सदा हँसती रहती हैं। इनके परिपुष्ट विग्रह के सामने करोड़ों चन्द्रमा की प्रभा भी तुच्छ है। ये विशुद्ध चिन्मय वस्त्र पहने हैं। इनके एक हाथ में वीणा है और दूसरे में पुस्तक । सर्वोत्तम रत्नों से बने हुए आभूषण इन्हें सुशोभित कर रहे हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव प्रभृति प्रधान देवताओं तथा सुरगणों से ये सुपूजित हैं। श्रेष्ठ मुनि, मनु तथा मानव इनके चरणों में मस्तक झुकाते हैं। ऐसी भगवती सरस्वती को मैं भक्तिपूर्वक प्रणाम करता हूँ।’

इस प्रकार ध्यान करके विद्वान् पुरुष पूजन के समग्र पदार्थ मूलमन्त्र विधिवत्
सरस्वती को अर्पण कर दे, फिर कवच का पाठ करने के पश्चात् दण्ड की भाँति भूमिपर पड़कर देवी को साष्टांग प्रणाम करे। मुने! जो पुरुष भगवती सरस्वती को अपना इष्टदेवता मानते हैं, उनके लिये यह नित्यक्रिया है। ‘श्री ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा’ यह वैदिक अष्टाक्षर मूल मन्त्र परम श्रेष्ठ एवं सबके लिये उपयोगी है। अथवा जिनको जिसने जिस मन्त्र का उपदेश दिया है, उनके लिये वही मूल मन्त्र है। ‘सरस्वती’ इस शब्द के साथ चतुर्थी विभक्ति जोड़कर अन्त में स्वाहा शब्द लगा लेना चाहिये। लक्ष्मी और योगमाया की आराधना में भी इसी मन्त्र का प्रयोग किया जाता है। इस मन्त्र को कल्पवृक्ष कहते हैं। प्राचीन काल में कृपा के समुद्र भगवान् नारायण ने वाल्मीकि मुनि को इसी का उपदेश किया था। भारतवर्ष में गंगा के पावन तटपर यह कार्य सम्पन्न हुआ था। फिर, सूर्यग्रहण के अवसर पर पुष्कर – क्षेत्र में परशुरामजी ने शुक्र को इसका उपदेश किया था। मारीच ने चन्द्रग्रहण के समय प्रसन्न होकर बृहस्पति को बताया था। बदरी – आश्रम में परम प्रसन्न ब्रह्मा की कृपा से भृगु इसे जान सके थे। जरत्कारु मुनि क्षीरसागर के पास विराजमान थे। उन्होंने आस्तीक को यह मन्त्र पढ़ाया था । बुद्धिमान् ऋष्यशृंग ने मेरुपर्वत पर विभाण्डक मुनि से इसकी शिक्षा प्राप्त की थी। शिव ने आनन्द में आकर गोतम गोत्र में उत्पन्न कण्वमुनि को इसका उपदेश किया था। याज्ञवल्क्य कात्यायन ने सूर्य की दया से इसे पाया था। महाभाग शेष पाताल में बलि के सभा भवन पर विराजमान थे। वहीं उन्होंने पाणिनि, बुद्धिमान् भारद्वाज और शाकटायन को इसका अभ्यास कराया था। चार लाख जप करने पर मनुष्य के
लिये यह मन्त्र सिद्ध हो सकता है। इस मन्त्र के सिद्ध हो जाने पर अवश्य ही मनुष्य में बृहस्पति के समान योग्यता प्राप्त हो सकती है। विप्रेन्द्र ! सरस्वती का कवच विश्वपर विजय प्राप्त कराने वाला है। जगत्स्स्रष्टा ब्रह्मा ने गन्धमादन पर्वत पर भृगु के आग्रह से इसे उन्हें बताया था, वही मैं तुमसे कहता हूँ, सुनो।

भृगु ने कहा- ब्रह्मन् ! आप ब्रह्मज्ञानी जनों में प्रमुख, पूर्ण ब्रह्मज्ञानसम्पन्न, सर्वज्ञ, सबके पिता, सबके स्वामी एवं सबके परम आराध्य हैं। प्रभो! आप मुझे सरस्वती का ‘विश्वजय’ नामक कवच बताने की कृपा कीजिये । मन्त्रों का समूह यह कवच परम पवित्र है।

ब्रह्माजी बोले वत्स ! मैं सम्पूर्ण कामना पूर्ण करने वाला कवच कहता हूँ, सुनो। यह श्रुतियों का सार, कान के लिये सुखप्रद, वेदों में प्रतिपादित एवं उनसे अनुमोदित है। रासेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण गोलोक में विराजमान थे। वहीं वृन्दावन में रासमण्डल था। उसी समय उन प्रभु ने मुझे यह कवच सुनाया था। कल्पवृक्ष की तुलना करने वाला यह कवच परम गोपनीय है। जिन्हें किसी ने नहीं सुना है, वे अद्भुत मन्त्र इसमें सम्मिलित हैं। इसे धारण करने के प्रभावसे ही भगवान् शुक्राचार्य सम्पूर्ण दैत्यों के पूज्य बन सके। ब्रह्मन् ! बृहस्पति में इतनी बुद्धि का समावेश इस कवच की महिमा से ही हुआ है। वाल्मीकि मुनि सदा इसका पाठ और सरस्वती का ध्यान करते थे । अतः उन्हें कवीन्द्र कहलाने का सौभाग्य प्राप्त हो गया। वे भाषण करने में परम चतुर हो गये। इसे धारण करके स्वायम्भुव मनुने सबसे पूजा प्राप्त की। कणाद, गोतम, कण्व, पाणिनि, शाकटायन, दक्ष और कात्यायन इस कवच को धारण करके ही ग्रन्थों की रचना में सफल हुए। इसे धारण करके स्वयं कृष्णद्वैपायन व्यासदेव ने वेदों का विभाग कर खेल – ही खेल में अखिल पुराणों का प्रणयन किया। शातातप, संवर्त, वसिष्ठ, पराशर, याज्ञवल्क्य, ऋष्यशृंग, भारद्वाज, आस्तीक, देवल, जैगीषव्य और ययाति ने इस कवच के साथ ही पूरे ग्रन्थ का अध्ययन किया था । इसीसे सर्वत्र उनका सम्मान होने लगा ।

विप्रेन्द्र! इस कवच के ऋषि प्रजापति हैं। स्वयं बृहती छन्द है। माता शारदा अधिष्ठात्री देवी हैं। अखिल तत्त्व – परिज्ञानपूर्वक सम्पूर्ण अर्थ के साधन तथा समस्त कविताओं के विवेचन में इसका प्रयोग किया जाता है।

श्रीं ह्रीं -स्वरूपिणी भगवती सरस्वती सब ओर से मेरे सिर की रक्षा करें। श्रीमयी वाग्देवता सदा मेरे ललाट की रक्षा करें। ॐ ह्रीं भगवती सरस्वती निरन्तर कानों की रक्षा करें। ॐ श्रीं ह्रीं भगवती सरस्वती देवी सदा दोनों नेत्रों की रक्षा करें। ऐं ह्रीं स्वरूपिणी वाणी की अधिष्ठात्री देवी सदा मेरी नासिका की रक्षा करें। ॐ ह्रींमयी विद्या की अधिष्ठात्री देवी होठ की रक्षा करें। ॐ श्रीं ह्रीं भगवती ब्राह्मी दन्तपंक्ति की निरन्तर रक्षा करें। ‘ऐं’ यह देवी सरस्वती का एकाक्षर मन्त्र मेरे कण्ठ की रक्षा करे। ॐ श्रीं ह्रीं मेरे गले की तथा श्रीं मेरे कंधों की सदा रक्षा करें। विद्या की अधिष्ठात्री देवी ॐ ह्रीं -स्वरूपिणी सरस्वती सदा वक्षःस्थल की रक्षा करें। विद्याधिस्वरूपा ॐ ह्रींमयी देवी मेरी नाभि की रक्षा करें। ॐ ह्रीं क्लीं -स्वरूपिणी देवी वाणी सदा मेरे हाथ की रक्षा करें। ॐ-स्वरूपिणी भगवती सर्ववर्णात्मिका दोनों पैरों को सुरक्षित रखें। ॐ वाग्-अधिष्ठात्री देवी के द्वारा मैं सब प्रकार से सदा सुरक्षित रहूँ। सबके कण्ठ में निवास करने वाली ॐ-स्वरूपा देवी पूर्वदिशा में सदा मेरी रक्षा करें। सबकी जीभ के अग्रभाग पर विराजने वाली ॐ-स्वरूपिणी देवी अग्निकोण में रक्षा करें ‘ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै
स्वाहा । ‘

  • इसको मन्त्रराज कहते हैं। यह इसी रूप में सदा विराजमान रहता है। यह निरन्तर मेरे दक्षिण भाग की रक्षा करे। ऐं ह्रीं श्रीं यह त्र्यक्षर नैर्ऋत्यकोण में सदा रक्षा करे। जिह्वा के अग्रभाग पर रहने वाली ॐ ऐं स्वरूपिणी देवी पश्चिमदिशा में मेरी रक्षा करें। ॐ स्वरूपिणी भगवती सर्वाम्बिका वायव्यकोण में सदा मेरी रक्षा करें। गद्य में निवास करने वाली ॐ ऐं श्रीं क्लींमयी देवी उत्तरदिशा में मेरी रक्षा करें। सम्पूर्ण शास्त्रों में विराजने वाली ऐं-स्वरूपिणी देवी ईशानकोण में सदा रक्षा करें। ॐ ह्रीं -स्वरूपिणी सर्वपूजिता देवी ऊपर से मेरी रक्षा करें। पुस्तक में निवास करने वाली ह्रीं -स्वरूपिणी देवी मेरे निम्नभाग की रक्षा करें। ॐ स्वरूपिणी ग्रन्थबीजस्वरूपा देवी सब ओर से मेरी रक्षा करें।

विप्र ! यह सरस्वती – कवच तुम्हें सुना दिया। असंख्य ब्रह्ममन्त्रों का यह मूर्तिमान् विग्रह है। ब्रह्मस्वरूप इस कवच को ‘विश्वजय’ कहते हैं। प्राचीन समय की बात है— गन्धमादन पर्वत पर धर्मदेव के मुख से मुझे इसे सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ था। तुम मेरे परम प्रिय हो। अतएव तुमसे मैंने कहा है। तुम्हें अन्य किसी के सामने इसकी चर्चा नहीं करनी चाहिये। विद्वान् पुरुष को चाहिये कि वस्त्र, चन्दन और अलंकार आदि सामानों से विधिपूर्वक गुरु की पूजा करके दण्ड की भाँति जमीन पर पड़कर उन्हें प्रणाम करे। तत्पश्चात् उनसे इस कवच का अध्ययन करे। पाँच लाख जप करने के पश्चात् यह कवच सिद्ध हो सकता है। इस कवच के सिद्ध हो जाने पर पुरुष को बृहस्पति के समान पूर्ण योग्यता प्राप्त हो सकती है। इस कवच के प्रसाद से पुरुष भाषण करने में परम चतुर, कवियों का सम्राट् और त्रैलोक्यविजयी हो सकता है। उसमें सब कुछ जीतने की योग्यता प्राप्त हो जाती है। मुने! यह कवच कण्वशाखा के अन्तर्गत है। अब स्तोत्र, ध्यान, वन्दन और पूजा का विधान बताता हूँ, सुनो।

भगवान् नारायण कहते हैं – नारद! सरस्वती देवी का स्तोत्र सुनो, जिससे सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं। प्राचीन समय की बात है याज्ञवल्क्य नामक प्रसिद्ध एक प्रधान मुनि थे। उन्होंने भगवती सरस्वती की स्तुति की थी। जब गुरु ने शाप देकर उनकी श्रेष्ठ विद्या को नष्ट कर दिया, तब वे अत्यन्त दुःखी होकर लोलार्क- कुण्ड पर, जो उत्तम पुण्य प्रदान करने वाला स्थान है, गये। उन्होंने तपस्या के साथ ही शोकविह्वल होकर भगवान् सूर्य की स्तुति की; तब शक्तिशाली सूर्य ने याज्ञवल्क्य को वेद और वेदांग का अध्ययन कराया। साथ ही कहा – ‘मुने! तुम स्मरण शक्ति प्राप्त करने के लिये भक्तिपूर्वक भगवती सरस्वती की स्तुति करो।’ इस प्रकार कहकर दीनजनों पर दया करने वाले सूर्य अन्तर्धान हो गये। तब याज्ञवल्क्य मुनि ने स्नान किया और नम्रता के कारण सिर झुकाकर वे भक्तिपूर्वक स्तुति करने लगे ।

याज्ञवल्क्य बोले- जगन्माता! मुझ पर कृपा करो। मैं बड़ा निस्तेज हो गया हूँ। गुरु के शाप से मेरी स्मरणशक्ति नष्ट हो गयी है। मैं विद्या से वंचित हो बैठा हूँ। मुझे दुःख सता रहा है। तुम मुझे ज्ञान, स्मृति, शिष्यों को समझाने की शक्ति, विद्या तथा ग्रन्थ-रचना करने की कुशलता देने के साथ ही अपना उत्तम एवं सुप्रतिष्ठित शिष्य बना लो। माता ! तुम्हारी कृपा से मैं प्रतिभाशाली बनकर सज्जनों की सभा में जाऊँ और वहाँ विचार करने में मुझे उत्तम क्षमता प्राप्त हो सके । दुर्भाग्यवश मेरा जो सम्पूर्ण ज्ञान नष्ट हो गया है, वह मुझे पुनः प्राप्त हो जाय। जिस प्रकार देवता धूल में छिपे हुए बीज को समयानुसार अंकुरित कर देते हैं, वैसे ही तुम भी मेरे लुप्त ज्ञान को पुनः प्रकाशित कर दो। तुम ब्रह्मस्वरूपा, परमा, ज्योतीरूपा, सनातनी, सम्पूर्ण विद्याओं की अधिष्ठात्री एवं भगवती सरस्वती हो। तुम्हें बार-बार प्रणाम है। विसर्ग, बिन्दु एवं मात्रा तीनों में जो अधिष्ठानरूप से विद्यमान है, उसकी भी अधिष्ठात्री भगवती नीति को बारम्बार नमस्कार है। वे देवी व्याख्यास्वरूपिणी हैं तथा व्याख्या की अधिष्ठात्री भी वे ही हैं। जिनके बिना सुप्रसिद्ध गणक भी संख्या के परिगणन में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता, उन कालसंख्यास्वरूपिणी भगवती को बार-बार नमस्कार है। जो भ्रम सिद्धान्तरूपा तथा स्मृतिशक्ति, ज्ञानशक्ति और बुद्धिस्वरूपा हैं, उन देवी को बार-बार प्रणाम है। जो प्रतिभा शक्ति और कल्पनाशक्ति हैं, उनको बार-बार प्रणाम है। एक बार सनत्कुमार ने ब्रह्माजी से ज्ञान का रहस्य पूछा था। उस समय ब्रह्मा भी मूक- जैसे हो गये थे । वे ब्रह्मसिद्धान्त के विषय में कुछ भी कह न सके। उस समय स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ पधारे। उन्होंने आते ही कहा – ‘प्रजापते! तुम भगवती सरस्वती को इष्ट देवता मानकर उनकी स्तुति करो।’ परमप्रभु श्रीकृष्ण की आज्ञा पाकर ब्रह्मा ने तुरंत सरस्वती की स्तुति आरम्भ कर दी। फिर तो देवी की कृपा से उत्तम सिद्धान्त के विवेचन में वे सफलीभूत हो गये ।

ऐसे ही एक समय की बात है-पृथ्वी ने महाभाग अनन्त से ज्ञान का रहस्य पूछा था। शेष की भी मूकवत् स्थिति हो गयी। वे सिद्धान्त नहीं बता सके। उनके हृदय में घबराहट उत्पन्न हो गयी। तब कश्यप के आज्ञानुसार उन्होंने सरस्वती की स्तुति की। इससे वे ऐसे सुयोग्य बन गये कि उनके मुख से भ्रम को दूर करने वाले निर्मल सिद्धान्त का विशद विवेचन हो सका। जब व्यास ने वाल्मीकि से पुराण सूत्र के विषय में प्रश्न किया, तब वे चुप हो गये। ऐसी स्थिति में वाल्मीकि ने भगवती जगदम्बा को स्मरण किया। तब भगवती ने उन्हें वर दिया, जिसके प्रभाव से मुनिवर वाल्मीकि सिद्धान्त का प्रतिपादन कर सके। उस समय उन्हें भ्रमरूपी अन्धकार को मिटाने वाला प्रकाशमान ज्योति के सदृश निर्मल ज्ञान प्राप्त हो गया। भगवान् श्रीकृष्ण के अंश व्यासजी वाल्मीकि मुनि के मुख से पुराणसूत्र सुनकर उसका अर्थ कविता के रूप में स्पष्ट करने के लिये कल्याणमयी देवी का ध्यान करने लगे। पुष्करक्षेत्र में रहकर सौ वर्षों तक उपासना की। माता! तब तुमसे वर पाकर व्यासजी कवीश्वर बन सके। उसी समय उन्होंने वेदों का विभाजन तथा पुराणों की रचना की। जब देवराज इन्द्र ने भगवान् शंकर से तत्त्वज्ञान के विषय में प्रश्न किया, तब क्षणभर भगवती का ध्यान करके वे उन्हें ज्ञानोपदेश करने लगे । फिर इन्द्र ने बृहस्पति से शब्दशास्त्र के विषय में पूछा। जगदम्बे ! उस समय बृहस्पति पुष्करक्षेत्र में जाकर देवताओं के वर्ष से एक हजार वर्ष तक तुम्हारे ध्यान में संलग्न रहे। इतने वर्षों के बाद तुमने उन्हें वर प्रदान किया। तब वे इन्द्र को शब्दशास्त्र और उसका अर्थ समझा सके। बृहस्पति ने जितने शिष्यों को पढ़ाया है और जितने सुप्रसिद्ध मुनि उनसे अध्ययन कर चुके हैं, वे सब-के-सब भगवती सुरेश्वरी का चिन्तन करने के पश्चात् ही सफलीभूत हुए हैं। माता ! वह देवी तुम्हीं हो। मुनीश्वर, मनु और मानव सभी तुम्हारी पूजा और स्तुति कर चुके हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, देवता और दानवेश्वर प्रभृति – सबने तुम्हारी उपासना की है। जब हजार मुखवाले शेष, पाँच मुखवाले शंकर तथा चार मुखवाले ब्रह्मा तुम्हारा यशोगान करने में जडवत् हो गये, तब एक मुखवाला मैं मानव तुम्हारी स्तुति कर ही कैसे सकता हूँ।

नारद! इस प्रकार स्तुति करके मुनिवर याज्ञवल्क्य भगवती सरस्वती को प्रणाम करने लगे। उस समय भक्ति के कारण उनका कंधा झुक गया था। उनकी आँखों से जल की धाराएँ निरन्तर गिर रही थीं। इतने में ज्योतिःस्वरूपा महामाया का उन्हें दर्शन प्राप्त हुआ। देवी ने उनसे कहा ‘मुने! तुम सुप्रख्यात कवि हो जाओ।’ यों कहकर भगवती महामाया वैकुण्ठ पधार गयीं। जो पुरुष याज्ञवल्क्यरचित इस सरस्वतीस्तोत्र को पढ़ता है, उसे कवीन्द्र पद की प्राप्ति हो जाती है। भाषण करने में वह बृहस्पति की तुलना कर सकता है। कोई महान् मूर्ख अथवा दुर्बुद्धि ही क्यों न हो; यदि वह एक वर्षतक नियमपूर्वक इस स्तोत्र का पाठ करता है, तो वह निश्चय ही पण्डित, परम बुद्धिमान् एवं सुकवि हो जाता है।