प्रश्र-विचार
जिस समय किसी भी कार्य के लाभालाभ, शुभाशुभ जानने की इच्छा हो उस समय का लग्न निकाल कर प्रश्र कुण्डली बना लेनी चाहिए, साथ ही ग्रह स्पष्ट, भाव स्पष्ट, नवमांश कुण्डली तथा चलित कुण्डली बनाकर शुभाशुभ विचार करना चाहिए।
ग्रहावस्था
प्रश्र कुण्डली में ग्रहों की अवस्था का भी निश्चय कर लेना चाहिए। अवस्था से ग्रहों के 10 भेद किए जाते हैं:-
1. दीप्त-उच्च राशि में पड़ा हुआ ग्रह।
2. दीन-अपनी नीच राशि में पड़ा हुआ ग्रह।
3. मुदित-अपनी मित्र राशि में पड़ा हुआ ग्रह।
4. स्वस्थ-अपनी राशि में पड़ा हुआ ग्रह।
5. सुप्त-शत्रु राशि में पड़ा हुआ ग्रह।
6. पीडि़त-पाप ग्रहों से युक्त या दुष्ट ग्रह।
7. दीन-नीचाभिलाषी ग्रह।
8. मुषित-अस्तंगत ग्रह।
9. सुवीर्य-उच्चाभिलाषी ग्रह।
10. अधिवीर्य-शुभांशक में पड़ा हुआ ग्रह।
ग्रहावस्था फल
1. दीप्तावस्था में ग्रह कार्य सिद्धि करता है।
2. दीनावस्था में जातक को दु:ख की प्राप्ति होती है।
3. स्वस्थावस्था में जाक को कीर्ति लाभ होता है और धन प्राप्ति का योग बनता है।
4. मुदितावस्था में आनंद, सुख एवं प्रसन्नता का लाभ होता है।
5. सुप्तावस्था में शत्रुओं के आक्रमण की चिंता रहती है तथा अंग-भंग से दु:ख प्राप्ति होती है।
6. पीडि़तावस्था में धन-हानि एवं घाटा उठाना पड़ता है।
7. मुषितावस्था में कार्य का नाश होता है।
8. परिहीनावस्था में जातक की उन्नति में गतिरोध उपस्थित होता है।
9. सुवीर्यावस्था में उत्तम वाहनादि का योग बनता है।
10. अधिवीर्यावस्था में राज्य सम्मान, प्रमोशन, उन्नति तथा धन लाभ होता है।
फल नियम
1. जो भाव अपने स्वामी से या शुभ से युक्त अथवा दृष्ट होता है, उस भाव की वृद्धि तथा पापी ग्रहों से युक्त अथवा दृष्ट होने पर उस भाव की हानि होती है।
2. सौभ्य राशि लग्न में हो तो कार्यसिद्धि करता है।
3. कू्रर लग्न युक्त ग्रह हो तो कार्य पूर्ण होने में विलम्ब समझना चाहिए।
4. लग्न को लग्नेश न देखकर शुभ ग्रह देखे तो चौथाई योग समझना चाहिए।
5. लग्नेश को शुभ ग्रह देखें और कार्यसिद्धि योग उनमें न हो तो आधा योग माना जाएगा।
6. एक शुभ ग्रह लग्न या लग्नेश को देखे तो जातक की कार्यसिद्धि अवश्य होती है।
7. लग्नेश को दो या 3 शुभ ग्रह देखते हों तो ऐसा योग त्रिभागोन कहलाता है और कार्य सिद्धि करता है।
8. पाप ग्रह दृष्टि रहित चन्द्रमा और शुभ ग्रह लग्न तथा लग्नेश को देखे तो पूर्ण कार्यसिद्धि का योग समझना चाहिए।
9. कार्य से सम्बंधित भाव स्वामी पापग्रह युक्त या दृष्ट हो तो कार्य नाश समझना चाहिए।
कार्य अवधि ज्ञान
1. कार्य भाव स्वामी कार्य स्थान को देखे तो कार्य शीघ्र ही सम्पन्न होगा, ऐसा समझना चाहिए।
2. लग्नेश लग्न को देखता हो, तब भी कार्य शीघ्र ही समझना चाहिए।
3. कार्येश लग्न में हो और लग्नेश को देखता हो तो कार्य शीघ्र ही सम्पन्न होगा।
4. चन्द्रमा लग्न को या लग्नेश को देखता हो, तब भी कार्य सिद्धि शीघ्र ही समझनी चाहिए।
5. लग्नेश और कार्येश एक ही स्थान पर हों तो कार्य तुरंत होगा, ऐसा समझना चाहिए।
6. लग्नेश, कार्येश को न देखता हो तो कार्य के पूरा होना में विलम्ब होगा।
7. लग्नेश, कार्येश स्थान को न देख रहा हो तो भी कार्य में विलम्ब ही समझना चाहिए।
8. लग्नेश और अष्टमेश दोनों अष्टम स्थान में एक ही द्रेष्काण हो तो पूछने वाले को शीघ्र ही लाभ होता है।
9. लग्नेश और लाभेश परस्पर दृष्ट हों तो कार्य तुरंत होकर लाभ पहुंचता है।
10. चन्द्रमा जिस स्थान को देखता है, उस भाव की वृद्धि करता है।
11. लग्नेश छठे स्थान में हो तो कार्य नहीं होगा, ऐसा ही समझना चाहिए।
प्रश्र ज्ञान
प्रश्र पूछने वाले के दिन में क्या है या वह किस सम्बंध में प्रश्र करना चाहता है, इसकी जानकारी के लिए नीचे लिखे नियमों को ध्यान में रखना चाहिए।
1. प्रश्र लग्न विषय राशि (1, 3, 5, 7, 9, 11) पर हो तो 1, 4, 8 होने पर धातु सम्बंधित प्रश्र 2, 5, 8 लग्न रहे तो मूल सम्बंधी तथा 3, 6, 9 हो तो जीव चिंता समझनी चाहिए।
2. सूर्य या मंगल बलवान होकर केंद्रगत हो तो धातु सम्बंधी, बुध शनि हो तो मूल सम्बंधित एवं चन्द्रमा बृहस्पति हो तो जीव चिंता समझना चािहए। इस प्रकार की स्थिति में शुक्र हो तो भी जीव चिंता ही समझनी चाहिए।
3. लग्न में 1, 8, 5 राशि हो तथा मंगल या शनि से युक्त अथवा दृष्ट हो तो धातु सम्बंधित 3, 11, 6 राशि लग्न में हो तथा बुध, शनि युक्त या दृष्ट हों तो मूल सम्बंधित एवं 2, 7, 5, 12, 9, 4 राशि चन्द्र, गुरु, शुक्र से युक्त अथवा दृष्ट हों तो जीव सम्बंधित प्रश्र जानना चाहिए।
4. लग्नेश वा द्वितीयेश में जो बलवान हो अथवा इनके अशेशों से जितने भाव में चन्द्रमा हो उस भाव सम्बंधित ही प्रश्र है, ऐसा जानना चाहिए।
5. चन्द्रमा से लग्नेश जितने में हो, उससे सम्बंधित प्रश्र ही विचार रखा है, ऐसा समझना चाहिए।
6. सर्वाेत्तम बली ग्रह या तत्काल लग्न का नवांशेश लग्न में हो तो शरीर सम्बंधित, तीसरा हो तो मातृ-सम्बंधित, पंचम में पुत्र सम्बंधित, चतुर्थ में माता-बहन के सम्बंध में, छठे में शत्रु-सम्बंधित, सप्तम में स्त्री सम्बंधित, नवम् में धर्म-सम्बंधित, दशम् मं राज्य सम्बंधित और एकादश में आय-सम्बंधित प्रश्र जानना चाहिए।
7. पूर्वाेक्त ग्रह चरराशि, चरनवांश में दशम् स्थान से ऊपर 10, 11, 12 में हो तो प्रदेश सम्बंधित या प्रवासी सम्बंधित प्रश्र जानना चाहिए।
8. सप्तम स्थान में सूर्य, शुक्र या बली मंगल हो तो प्रेमिका अथवा परस्त्री-सम्बंधित, बृहस्पति हो तो अपनी स्त्री सम्बंधित, बुध हो तो वेश्या, चन्द्र हो तो भी वेश्या एवं शनि हो तो हीन जाति की स्त्री सम्बंधित प्रश्र जानना चाहिए।
9. चर राशि नवांश में सप्तमाधिक 7, 8, 9 में हो तो प्रश्रकत्र्ता का मानसिक चिंता सम्बंधित प्रश्र है, ऐसा कहना चाहिए।
प्रश्र अवधि
1. लग्नेश जिस घर में हो, उस भाव या राशि का अंक जो भी हो, उस संख्या के काल में कार्य सिद्ध होगा, ऐसा जानना चाहिए।
2. राशि संख्यानुसार-मंगल से दिन, चन्द्र से घटी, बुध से ऋतु गुरु, भृगु से मास तथा शनि से वर्ष की संख्या निश्चित करनी चाहिए।
धातु अर्थ-ऊपर धातु शब्द प्रयोग किया है। धातु सम्बंधित प्रश्र में द्रव्य, द्रव्य का लेन-देन, पत्थर का कार्य, हीरे-मोतियों का व्यापार, आभूषण, लाभ, नौकरी एवं राज्य सम्बंधित प्रश्र जानना।
मूल अर्थ- हिसाब-किताब, भूमि-सम्बंधित कार्य, कृषि, भोग-विलास, वस्त्र, व्यापार, लेखन कार्य, अन्न का व्यापार आदि मूल से अर्थि जानना चाहिए।
लग्नपति जिह घर परै तिहि संख्या को अंक।
तितने संख्या काल में कारज होय निसंक।।
जीव अर्थ
पत्नी, पुत्र, परिवार, सम्बंधित सुख-दुख, स्वयं का स्वास्थ्य, यात्रा, पशुओं का लेन-देन आदि इससे समझना चाहिए।
प्रश्र विचार
1. स्वास्थ्य, सुख-दुख आदि के लिए लग्न, लग्नेश तथा लग्न राशिपति से विचार करना चाहिए।
2. धन-प्राप्ति के प्रश्र में-लग्न-लग्नेश, धन-धनेश और चन्द्रमा से।
3. यश-प्राप्ति के प्रश्र में-लग्न, तृतीय स्थान, दशम और इन स्थानों के स्वामियों में।
4. सुख-शांति, गृह, भूमि आदि के प्रश्र में-लग्न, चतुर्थ स्थान, दशम स्थान, इन स्थानों के स्वामी तथा चन्द्रमा की स्थित से।
5. परीक्षा, साक्षात्कार आदि के प्रश्रों-लग्न, पंचम, नवम तथा दशम स्थान, इन स्थानों के स्वामी तथा चन्द्रमा से।
6. विवाह के प्रश्र में-लग्न, द्वितीय, सप्तम स्थान, इन स्थानों के स्वामी तथा चन्द्रमा की स्थिति से।
7. नौकरी, व्यवसाय, मुकद्दमें आदि के प्रश्र में-लग्न-लग्नेश दशम स्थान तथा दशमेश, एकादश-एकादशेश एवं चन्द्रमा से।
8. बड़े व्यापार के प्रश्र में-लग्न-लग्नेश, द्वितीय-द्वितीयेश, सप्तम-सप्तमेश, दशम-दशमेश, एकादश-एकादशेश तथा चन्द्रमा की स्थिति से।
9. लाभ के प्रश्र में-लग्नेश, एकादश-एकादशेश तथा चन्द्र से।
10. सन्तान प्राप्ति के प्रश्न में-लग्न-लग्नेश, द्वितीय, द्वितीयेश, पंचम-पंचमेश तथा गुरु की स्थिति से विचार करना चाहिए।
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