भीष्माष्टमी
भीष्माष्टमी का पर्व माघ माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को किया जाता है। इस वर्ष भीष्माष्टमी 8 फरवरी 2022 को मंगलवार के दिन मनाई जाएगी। यह व्रत भीष्म पितामाह के निमित्त किया जाता है। इस दिन महाभारत की कथा के भीष्म पर्व का पठन किया जाता है, साथ ही भगवान श्री कृष्ण का पूजन भी होता है। पौराणिक मान्यता अनुसार भीष्म अष्टमी के दिन ही भीष्म पितामाह ने अपने शरीर का त्याग किया था। अत: उनके निर्वाण दिवस के रुप में भी इस दिन को मनाया जाता है।
भीष्माष्टमी कथा
भीष्माष्टमी से संबंधित कथा में महाभारत काल का समय ही व्याप्त है, जिसमें महाभारत के युद्ध एवं भीष्म पितामह के जीवन चरित्र का वर्णन मिलता है। महाभारत कथा के अनुसार भीष्म पितामह का असली नाम देवव्रत था। वह हस्तिनापुर के राजा शांतनु के पुत्र थे और उनकी माता गंगा थी। महाभारत के युद्ध में अपने वचन में बंधे होने के कारण अपनी इच्छा के विरुद्ध पितामह भीष्म को पांडवों के विरुद्ध युद्ध करना पडा था। इस युद्ध में भीष्म पितामह को हरा पाना किसी भी योद्धा के बस की बात नहीं थी। ऎसे में श्री कृष्ण पांडवों को युद्ध समय शिखंडी को पितामह के सामने खड़ा करने और युद्ध करने की सलाह देते हैं। पितामह शिखंडी पर शस्त्र नही उठाने का वचन लिए होते हैं, क्योंकि शिखंडी में स्त्री व पुरुष दोनों के गुण थे और भीष्म पितामाह स्त्री के समक्ष शस्त्र नहीं उठाने के लिए वचनबद्ध थे। ऎसे में पांडव युद्ध समय पर भीष्म पितामाह के सामने शिखंडी को खड़ा कर देते हैं, ऎसे में भीष्म पितामह अपने शस्त्र का उपयोग नहीं करते हैं और शस्त्र न उठाने के अपने वचन के कारण वह पांडवों के द्वारा छोड़े गए बांणों से घायल होकर बाणों की शैय्या पर लेट जाते हैं। 18 दिनों तक बाणों शैया पर पडे रहे, किंतु उन्होंने अपनी शरीर का त्याग नहीं किया क्योंकि उन्हें सूर्य के उतरायण होने की प्रतिक्षा थी। जैसे ही सूर्य उत्तरायण होते हैं वह अपनी देह का त्याग करते हैं। जीवन की अनेक विपरीत परिस्थितियों में भी भीष्म पितामह ने अपनी हर प्रतिज्ञा को निभाया। अपने हर वचन को निभाने के कारण ही वे देवव्रत से भीष्म कहलाए।
भीष्म पितामह की जीवन गाथा
भीष्म पितामह का जन्म का नाम देवव्रत था। इनके जन्म कथा अनुसार इनके पिता हस्तिनापुर के राजा शांतनु थे। एक बार राजा शांतनु, गंगा के तट पर जा पहुंचते हैं, जहां उनकी भेंट एक अत्यंत सुन्दर स्त्री से होती है। उस रुपवती स्त्री के प्रति मोह एवं प्रेम से आकर्षित होकर वे उनसे उसका परिचय पूछते हैं और अपनी पत्नी बनने का प्रस्ताव रखते हैं। वह स्त्री उन्हें अपना नाम गंगा बताती है और उनके विवाह का प्रस्ताव स्वीकार करते हुए एक शर्त भी रखती है, की राजा आजीवन उसे किसी कार्य को करने से रोकेंगे नहीं और कोई प्रश्न भी नहीं पूछेंगे। राजा शांतनु गंगा की यह शर्त स्वीकार कर लेते हैं और इस प्रकार दोनो विवाह के बंधन में बंध जाते हैं। गंगा से राजा शान्तनु को पुत्र प्राप्त होता है, लेकिन गंगा पुत्र को जन्म के पश्चात नदी में ले जाकर प्रवाहित कर देती है। अपने दिए हुए वचन से विवश होने के कारण शांतनु, गंगा से कोई प्रश्न नहीं करते हैं। इसी प्रकार एक-एक करके जब सात पुत्रों का वियोग झेलने के बाद, गंगा राजा शांतनु की आठवीं संतान को भी नदी में बहाने के लिए जाने लगती है तो अपने वचन को तोड़ते हुए वह गंगा से अपने पुत्र को नदी में बहाने से रोक देते हैं। राजा शांतनु के वचन के टूट जाने की बात को कहते हुए गंगा अपने पुत्र को अपने साथ लेकर चली जाती हैं। महाराज शान्तनु एक लम्बा समय व्यतीत हो जाने के पश्चात गंगा के किनारे जाते हैं और गंगा से उनके पुत्र को देखने का आग्रह करते हैं। गंगा उनका आग्रह सुन पुत्र को राजा शांतनु को सौंप देती है। राजा शान्तनु अपने पुत्र देवव्रत को पाकर प्रसन्न चित्त से हस्तिनापुर चले जाते हैं और देवव्रत को युवराज घोषित करते हैं।
देवव्रत से भीष्म बनने की कथा
एक बार राजा शांतनु की भेंट मत्स्यगंधा से होती है जो हरिदास केवट की पुत्री होती है। शांतनु मत्स्यगंधा से विवाह करने की इच्छा प्रकट करते हैं। इसके लिए वह मत्स्यगंधा के पिता हरिदास के पास विवाह का प्रस्ताव लेकर जाते हैं। लेकिन हरिदास इस विवाह के लिए अपनी आज्ञा नहीं देते। वह इस कारण इस विवाह की स्वीकृति नहीं देते हैं क्योंकि राजा शांतनु का पुत्र देवव्रत उनका ज्येष्ठ पुत्र और उसकी होने वाली संताने ही राज्य की अधिकारी बनेंगी और मत्स्यगंधा कि संतानों को कभी राज्य का अधिकार प्राप्त नही हो सकेगा। राजा के सामने वह शर्त रखते हैं की उनकी पुत्री की संताने ही राज्य की उत्तराधिकारी होंगी देवव्रत नही, किंतु राजा शांतनु इस शर्त को नहीं मानते हैं। लेकिन राजा शांतनु मत्स्यगंधा को भूल नहीं पाते हैं और उसके वियोग में व्याकुल रहने लगते हैं। पिता की ऎसी दशा का जब देव व्रत को बोध होता है तो वह आजीवन विवाह न करने की शपथ लेते हैं। अपने इस कठोर व भीष्म वचन के कारण ही देवव्रत को भीष्म नाम प्राप्त होता है। पुत्र की इस पितृभक्ति और त्याग को जानकर राजा शांतनु को देवव्रत को इच्छा मृत्यु का आशीर्वाद देते हैं और कहते हैं की जब तक तुम नहीं चाहोगे तुम्हें मृत्यु प्राप्त नहीं हो सकेगी।
भीष्माष्टमी पर की पूजा विधि
भीष्म अष्टमी के दिन नित्य कर्म से निवृत्त होकर स्नान के पश्चात भगवान विष्णु की पूजा करना चाहिए।
सूर्य देव का पूजन करना चाहिए.
तिल, जल और कुशा से भीष्म पितामह के निमित्त तर्पण करना चाहिए।
तर्पण का कार्य अगर खुद न हो पाए तो किसी योग्य ब्राह्मण द्वारा इसे कराया जा सकता है।
ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए और उन्हें यथा योग्य दक्षिणा देनी चाहिए।
इस दिन अपने पूर्वजों का तर्पण करने का भी विधान बताया गया है।
इस दिन भीष्माष्टमी कथा का श्रवण करना चाहिए। मान्यता है कि इस दिन विधि विधान के साथ पूजन इत्यादि करने से व्यक्ति के कष्ट दूर होते हैं पितृरों का आशीर्वाद प्राप्त होता है। इस पूजन से पितृ दोष से भी मुक्ति प्राप्त होती है।
भीमाष्टमी पूजा और व्रत करने के लाभ
किंवदंतियों के अनुसार, यह माना जाता है कि भीष्म अष्टमी पूजा करने और इस विशेष दिन पर व्रत रखने से भक्तों को ईमानदार और आज्ञाकारी बच्चों का आशीर्वाद मिलता है।
भीष्म अष्टमी की पूर्व संध्या पर व्रत, तर्पण और पूजा सहित विभिन्न अनुष्ठानों को करने से, भक्त अपने अतीत और वर्तमान पापों से छुटकारा पाते हैं और उन्हें सौभाग्य का आशीर्वाद मिलता है।
यह लोगों को पितृ दोष से राहत दिलाने में भी मदद करता है।
भीष्म पितामह की शिक्षाएँ क्या हैं?
उस समय जब भीष्म सूर्य के उत्तरी गोलार्ध में अपनी यात्रा शुरू करने की प्रतीक्षा कर रहे थे, उन्होंने युधिष्ठिर को कुछ महत्वपूर्ण सबक दिए। उनकी कुछ महान शिक्षाओं में निम्नलिखित शामिल हैं:
क्रोध से मुक्त होना सीखें और लोगों को शांति प्राप्त करने के लिए क्षमा करें।
सभी कार्य पूर्ण होने चाहिए क्योंकि अधूरा कार्य नकारात्मकता को दर्शाता है
चीजों और लोगों से जुड़ने से बचें।
धर्म हमेशा पहले आना चाहिए।
कड़ी मेहनत करिये, सभी की रक्षा करिये और दयालु बनिए।
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